जब आती ग्रीष्म ऋतु,
धरती ताप से झुलसती ,
पेड़ पौधे तीखे घाम से ,
गरम गरम थपेडों से ,
मुरझाये लगते ।
पात विहीन डालियों संग ,
अपनी व्यथा कहते ।
पशु पक्षी बेबस हो ,
गरमी की मर सहते ।
आकुल व्याकुल जन ,
पानी ,छांव को तरसते ।
फ़िर भी भीषण गरमी में ,
किसी को शान्ति ,शुकून है ।
केशरिया फूलों से लदा ,
खड़ा शिरीष का पेड़ ,
पर वह भी मौन है ।
देखता है धरती की विपदा ,
पेड़ पौधों और मानवों की सजा ,
हाँ ,
वह धीरज बंधाता है ।
एक आस जगाता है ।
कहता ,टलेगा संकट ,
स्थिर ,थोड़े ही रहता है ।
देखो मुझे ,अपना गम दूर करो ।
भविष्य के सुखद सपनो को ,
अपनी आंखों में भरो ।
यह तपन ,यह तड़पन ,
जरूर कम होगी ।
आशा रखो ,
इस भीषण गरमी से ही ,
धरती की प्यास बुझेगी ।
छाएंगे मेघ ,वर्षा होगी ।
तुम्हारी पीड़ा ,वह ,
अपने आँचल में भर लेगी ।
सारा दुःख ,सारा संकट ,
टल जाएगा ।
धरती हरी भरी हो जायेगी ।
फूटेंगे नव अंकुर ,
तपन की पीड़ा ,
वर्षा की बूंदों में ,
घुल जायेगी .
Sunday, March 1, 2009
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