ग्रीष्म काल आता,
धरती ताप से झुलसती ,
पेड़ पौधे तीखे घाम में ,
गरम ,गरम थपेडों से ,
मुरझाये ,झुलसाये लगते .
पात विहीन डालियों संग ,
मानो अपनी व्यथा कहते .
पशु ,पक्षी बेबस हो ,
ताप की पीड़ा सहते ।
आकुल व्याकुल जन ,
छांव ,पानी को तरसते ।
हाँ ,इस भीषण गरमी में ,
किसी को सुकून है ।
शिरीष का खड़ा पेड़ ,
केशरिया फूलों से लदा,
पर वह शांत और ,
मौन है ।
निरखता ,धरती की विपदा ,
पेड़ ,पौधों को मिलती सजा ,
हाँ ,
वह धीरज बंधाता है ।
एक आस जगाता है ।
टलेगा संकट
स्थिर थोड़े ही रहता है ।
देखो मुझे ,अपना दुःख कम करो .
भविष्य के सुखद सपनों को ,
अपनी आंखों में भरो ।
यह तपन ,यह तड़पन ,
जरूर कम होगी ।
इस भीषण गरमी से ही ,
आगे ,धरती की प्यास बुझेगी ।
बिना तपे सोना ,
कहीं खरा होता है ,
छाएंगे मेघ ,वर्षा होगी ।
तुम्हारी पीड़ा ,
अपने आँचल में भर लेगी ।
सारा दुःख ,सारा संकट ,
टल जाएगा ,
धरती हरी भरी हो जायेगी ।
फूटेंगे नव अंकुर ,
तपन की पीडा ,
वर्षा की बूंदों में ,
घुल जायेगी .
Friday, March 20, 2009
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