बाजारवाद के इस युग में किस तरह विज्ञापन का संसार फ़ैल रहा है और कैसे मानव मूल्यों का क्षरण कर रहा है ,इस पर सोचना ,विचार करना हर प्रबुध्द नागरिक का कर्तव्य हो जाता है .कितना खतरनाक है विज्ञापन,इसकी झलक मुझे प्रसिध्द तमिल उपन्यासकार अखिलन के ज्ञानपीठ पुरस्कृत उपन्यास चित्रप्रिया हिंदी शीर्षक में मिली।
उपन्यास का नायक अन्नामलाई दुःख भरी हंसी से कहता है-हमारे देश में इस समय एक ऐसी आसुरी शक्ति तेजी से फैलती जा रही है.,जो एक हजार मंदिर ,दस हजार मस्जिद और एक लाख तिरुक्कुरल जैसे नीति ग्रंथों को एक ही बार में डुबो सकती है.उस शक्ति का एक रूप है ये विज्ञापन .यह ठीक है की हमारा काम सदाचार का उपदेश देना नहीं है परन्तु हमें नाना यंत्रों का प्रयोग कर अपने संस्कार और परम्पराओं का विनाश भी नहीं करना चाहिए।
उपन्यास १९७५ को पुरस्कृत हुआ था यानि की उसकी रचना पूर्व की रही होगी.आज से लगभग चार -पांच दशक पहले विज्ञापन का इतना प्रभाव तो नहीं ही था .क्या लेखक ने विज्ञापन की भयावहता की भविष्य वाणी की थी?आज फलीभूत हो रही है वह .सचमुच विज्ञापन का युग हमसे बहुत कुछ छीन रहा है ,वर्तमान के साथ भविष्य भी .क्या हम सचेत होंगे या इस प्रवाह में बह जायेंगे ? आज हमें इस पर चिंतन मनन करना होगा .सुखद भविष्य तभी हमारा होगा .
Monday, October 31, 2011
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